International Research Journal of Commerce , Arts and Science
( Online- ISSN 2319 - 9202 ) New DOI : 10.32804/CASIRJ
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21 वीं शताब्दी में भारतीय जनतन्त्र में बजट का स्वरूप
1 Author(s): ARVIND KUMAR SINGH
Vol - 4, Issue- 3 , Page(s) : 207 - 211 (2013 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ
सभ्य समाज एवं कल्याणकारी राज्य के उदभव के बाद मानव जीवन का कोर्इ भी पक्ष ऐसा नही रह गया है जा जनप्रतिनिधि सरकारों के कार्यक्षेत्र अथवा उनके दायित्वों की परिधि से बाहर हो। लोकतन्त्र में सरकारों को सामाजिक एवं आर्थिक विकास की योजनाएं कार्यानिवत करने, कानून व्यवस्था बनाये रखने तथा राज्य की विदेषी आक्रमण से रक्षा करने से लेकर विभिन्न कृत्यों का निर्वहन करना होता है। जनतन्त्र में सरकारों का इसके अतिरिक्त षिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन, संचार और लोगों के लिए रोजगार जैसी अनेक सामाजिक सेवाओं की व्यवस्था करनी होती है। जनतन्त्र में कार्यपालिका को इन कृत्यों के निर्वहन के लिए धन की आवष्यकता होती है। यह धन कहां से आए, धन की मंजूरी कौन दें? इस सार्वजनिक व्यय की पूर्ति के लिए करों, ़ऋणों, अनुदान आदि के द्वारा देष के संसाधनों में से आवष्यक धन जुटाया जाता है। जनतन्त्र में कार्यपालिका अपनी इच्छा अनुसार कर लगाकर या ऋण लेकर व्यय की पूर्ति नही कर सकती है। चूंकि राज्य के संसाधन सीमित होते है और इन दुर्लभ संसाधनों से विभिन्न सरकारी कार्यो को नियत करने हेतु उचित बजट व्यवस्था करना आवष्यक होता है।